एक अकादमिक विषय के
रूप में स्त्री अध्ययन की शुरुआत ‘द्वितीय लहर’ के नारीवाद के दौरान हुई। इसका पहला
पाठ्यक्रम संयुक्त राज्य अमेरिका में शुरू हुआ। आरंभिक दौर में महिलाएं स्वाध्याय
समूहों (चेतना जागरण) में एकत्र हुआ करती थीं। जो कि तीसरी दुनिया के अध्ययन
समूहों से बहुत कुछ मिलता-जुलता था। ये ऐसी जगहें हुआ करती
थीं, जहां लोग उन मुद्दों पर विचार करने के लिए एकत्रित होते
थे जो उन्हें परेशान करते थे, और संसार के व्यक्तिगत अनुभवों
को समूहिक समझ में परिवर्तित करने के लिए प्रयत्न करते थे। मेरी मोनार्ड के
अनुसार- “यह ऐसा विषय था जिसने धीरे-धीरे वैश्विक रूप लेना प्रारंभ कर लिया था।
हालांकि इस पाठ्यक्रम की रूपरेखा बहुत हद तक किसी भी देश के सांस्कृतिक, सामाजिक या संस्थानिक प्रवृत्ति पर निर्भर करती थी।
द्वितीय लहर का नारीवाद मुख्यतः इस बात
पर केन्द्रित था कि, किस
प्रकार विचार प्रक्रिया तथा ज्ञान की परंपरा ने स्त्रियों के हितों एवं उसकी
अस्मिता को लगातार हाशिये पर धकेला है। इसको तोड़ने और समझने के लिए नारीवादी
वैचारिकी अथवा अध्ययन को एक नए ज्ञान मीमांसा की आवश्यकता महसूस होने लगी। इसके
लिए मुख्य धारा की शोध-प्रविधि या यूं कहें कि पहले से स्थापित शोध विधि के बरक्स
नई शोध-प्रविधि के जरिये ज्ञान उत्पादन कि आवश्यकता पड़ी।
नारीवादी शोध की
परिभाषा
कुछ विद्वानों के अनुसार....
लिज स्टैनले के
अनुसार-
“ नारीवादी शोध स्वतंत्र रूप से और केन्द्रीय
रूप से महिलाओं द्वारा किया गया एक शोध है क्योंकि मैं नारिवाद और नारीवादी चेतना
के मध्य एक प्रत्यक्ष संबंध को देखती हूँ।”
कनाडियन राजनीति
वैज्ञानिक नेओमी ब्लैक के अनुसार-
“नारीवादी शोध व्यक्तिगत अनुभव और
व्यक्तिनिष्ठता के मूल्य पर आग्रह करती है।”
नारीवादी शोध की
प्रकृति एवं उद्देश्य
प्राथमिक तौर पर देखें तो, नारीवादी शोध वस्तुनिष्ठता की आलोचना करते
हुए व्यक्तिनिष्ठता पर अधिक ज़ोर देती है। इसके जरिये एक नए ज्ञान पद्धति का विकास
किया जाना है। अब तक का जो ज्ञान महिलाओं
के बारे में उपलब्ध है वह पुरुषवादी ज्ञान परंपरा के अंतर्गत बताया और समझाया गया
है। लेकिन नारीवादी शोध पद्धति एक ऐसे भवन का निर्माण करना चाहता है जिसमें ज्ञान
का वर्चस्व न रहे सबको अपने-अपने अधिकारों और भूमिकाओं का पूरा सम्मान मिल सके।
नारीवादी चिंतकों का मानना है कि अभी तक के ज्ञान का जो अनुभव रहा है वह आधी आबादी
का ज्ञान रहा है। यदि ऐसा न होता तो शायद एक अलग शोध पद्धति एवं नए ज्ञान मीमांसा
कि आवश्यकता न होती।
स्त्रियों की खुद की स्मिता, पहचान और महत्त्व को बनाए रखना इसके
उद्देश्य का मूल है। महिला भी एक व्यक्ति/मनुष्य है, इसे
प्रतिस्थापित करना भी शामिल है। और इन सबके लिए नारीवादी शोध प्रविधि परंपरागत
ज्ञान की पड़ताल करती है और अपनी अंतरानुशासनिकता
के कारण सभी विषयों, मिथकों,
संस्कृतियों आदि का नये तरीके से पुनर्परीक्षण कर एक नए ज्ञान की खोज ही इसका मूल
उद्देश्य है।
यह पद्धति कुछ
मुद्दों पर विशेष ध्यान केन्द्रित करता है-
· यह भावनाओं एवं विचारों पर
· डायरियों के पुनर्परीक्षण पर
· बनी बनाई सैद्धांतिकी पर
· मौखिक अनुभवों पर
नारीवादी शोध पद्धति
स्त्री अध्ययन अंतरानुशासनिक विषय है।
इसकी शोध प्रविधि या नारीवादी दृष्टिकोण से नए ज्ञान के निर्माण की ऐसी तकनीकी है, जो मुख्य धारा की शोध प्रविधि से अलग तरीके
अपनाती है। एक तरफ जहां इसमें वस्तुनिष्ठता की जगह वैषयिकता को अधिक महत्त्व है, वहीं मात्रात्मक शोध के बरक्स गुणात्मक शोध प्रविध के प्रयोग को अधिक
तरजीह दी जाती है। गुणात्मक शोध के अंतर्गत नृजातीय, जमीनी
स्तर पर किए गए शोध, मौखिक इतिहास,
सहभागी अवलोकन जैसे तथ्य संकलन के उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।
इसके अंतर्गत ज्ञान की समग्रता को
महत्त्व देते हुए अन्य समाज विज्ञानों में हो रहे पितृसत्तात्मक शोध से उपजे खंडित ज्ञान की आलोचना भी की जाती
है, क्योंकि ज्ञान अपनी समग्रता में ही
प्रासंगिक होता है। नारीवादी शोध का यह स्वरूप अन्य समाज शास्त्रीय शोधों की खंडित
ज्ञान सैद्धांतिकी की आलोचना करता है।
इस प्रकार देखें तो, नारीवादी शोध प्रविधि एक समग्र ज्ञान के
निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहती है। साथ-ही-साथ मुख्यधारा के शोध में
शोधार्थी और प्रतिभागी के बीच बनने वाले शक्ति संरचना की भी आलोचना करती है। जहां
एक तरफ यह स्त्री के निजी जीवन अनुभवों को अपने केंद्र में रखता है वहीं अपने
उद्देश्यों में चेतना निर्माण और सामाजिक परिवर्तन की मुहिम से भी जुड़ता है। नारीवादी
शोध विभिन्न स्टैंड पॉइंट एवं प्रविधियों की बहुलता पर यकीन करता है और मानता है
कि शोध में भावनात्मकता का आना कोई वर्जित वस्तु नहीं है। रसेल बनार्ड का मानना है
कि इस प्रकार के शोध में एक दूसरे प्रकार की वस्तुनिष्ठता आती है, जो दूसरों के अनुभवों पर आधारित हो और यह शोधकर्ता को पक्षपाती नहीं
बनाती। सीडबल्यूडीएस की डॉ॰ रेनू अद्दलखा ने अपने एक लेक्चर में Anne
Oakely को संदर्भित करते हुए बताया कि दरअसल एक तटस्थ साक्षात्कार
पुरुषवादी दृष्टिकोण रखता है और अंततः कोई भी सामाजिक शोध निकर्ष किसी सत-प्रतिशत
सत्य का नहीं बल्कि एक आंशिक सत्य का ही प्रतिनिधितत्व करता है।
कुल मिलकर नारीवादी शोध यह मानता है कि
“Personal is not only political but it is also theoretical”. इस प्रकार शोषित और शोषक की वस्तुनिष्ठता अलग-अलग होगी और शोषित समूह के
साथ भावनात्मक जुड़ाव के बिना सही मायने में ज्ञान का लोकतांत्रिकरण संभव नहीं
है।
संदर्भ
·
सिंघल, बैजनाथ.(1999).शोध:
स्वरूप एवं मानक व्यवहारिक कार्यविधि: वाणी प्रकाशन; नई दिल्ली
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श्रीवास्तव, ए॰ आर॰ एन॰ &
सिन्हा, आनंद कुमार.(1999). सामाजिक अनुसंधान: के॰
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What makes research
feminist (http://www.unb.ca/PAR-L/win/)
·
Reinharz,
Sulamit.(1992). Feminist methods in social research: Oxford
University Press
·
Dr. Renu addlakha
Lecture (2013)
- Shukla, Awantika. Lecture (2013)
# मनोज गुप्ता
शोधार्थी
पीएच. डी.
स्त्री
अध्ययन, विभाग
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
ईमेल-manojkumar07gupta@gmail.com