Monday, 2 November 2015

सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाएं



            यदि हम सार्वजनिक क्षेत्रों में महिलाओं की उपस्थिति के ग्राफ को देखें तो निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि यह तेजी से बढ़ रहा है, जो एक सकारात्मकता का द्योतक है। आज महिलाएं सार्वजनिक क्षेत्रों के विभिन्न स्तरों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहीं हैं। लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में अपनी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित कराने वाली महिलाओं के लिए कई चुनौतियाँ भी हैं। ऐतिहासिक रूप से देखें तो महिलाओं का सार्वजनिक जीवन में ज्यादा प्रतिनिधित्त्व नहीं रहा है। सांस्कृतिक संकीर्णताओं और परंपराओं का असर महिलाओं के निजी एवं सार्वजनिक जीवन पर स्पष्ट रूप से रहा है।
            भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के युग में समान्यतः यह जरूर दिखता है कि महिलाओं की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ है, उन्हें शिक्षा एवं रोजगार के नए अवसर मिल रहे हैं। कृषि, व्यापार, बैंकिंग, राजनीति के साथ ही अन्य विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्रों में सक्रिय भूमिका निभाते हुए देश के सर्वांगीण विकास में योगदान कर रही हैं। अरुंधति भट्टाचार्य, इंदिरा नूई, मल्लिका श्रीनिवास तथा चंदाकोचर जैसी कुछ महिलाएं उच्च पदों पर कार्यरत हैं। समय- समय पर सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्रों में महिलाओं के योगदान को बढ़ाने के लिए प्रयास किए जाते रहे हैं। समान कार्य के लिए समान वेतन, कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा संबंधी कानून, स्वयं सहायता समूहों तथा महिला उद्यमियों को ऋण सुविधा आदि ऐसे प्रयास शामिल हैं जो इस दिशा में सहायक माने जा सकते हैं। स्पैन मैगजीन में इंटरनेशनल रिपब्लिकन इंस्टीट्यूट -आईआरआई- की रेज़िडेंट कंट्री डायरेक्टर मिशेल बेकरिंग ने रक्तिमा बोस को दिये गए साक्षात्कार में कहा कि नेतृत्वकारी पदों पर महिलाओं के होने से सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ोतरी होती है, असाक्षरता कम होती है और शिक्षा पर खर्च में वृद्धि होती है जो न सिर्फ महिलाओं के लिए उल्लेखनीय लाभ है बल्कि पूरे समाज के लिए  है।
           सार्वजनिक क्षेत्रों में कार्यरत अधिकतर महिलाओं को दोहरी ज़िम्मेदारी का निर्वहन करना पड़ता है। इसके बावजूद उनके प्रति सामाजिक संवेदनशीलता पर प्रश्न उठता है जब नर्सिंग, काल सेंटर या अन्य संस्थाओं में नाइट ड्यूटी करने में असुरक्षा का भय रहता है। एसोचैम के सर्वे के मुताबिक दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अंदर बीपीओ, आईटी, सिविल एविएशन, नर्सिंग और हास्पिटालिटी के क्षेत्र में काम कर रही महिलाओं में 92 फ़ीसदी महिलाएं नाइट शिफ्ट में काम नहीं करना चाहतीं। ग्रामीण, असंगठित क्षेत्रों में काम कर रही महिलाओं को दूसरे प्रकार की समस्याओं से रूबरू होना पड़ता है। यह एक प्रकार की चुनौती है इसे स्वीकार करते हुए महिलाएं लगातार सार्वजनिक क्षेत्रों में अपनी अहम भूमिका निभा रही हैं। सार्वजनिक क्षेत्रों में महिलाओं की अधिक से अधिक भागीदारी बढ़ने से भविष्य में विकास के बेहतर परिणाम संभव हैं।  
-मनोज गुप्ता
ईमेल-manojkumar07gupta@gmail.com 

नारीवादी शोध प्रविधि (Feminist Research Method)


एक अकादमिक विषय के रूप में स्त्री अध्ययन की शुरुआत द्वितीय लहर के नारीवाद के दौरान हुई। इसका पहला पाठ्यक्रम संयुक्त राज्य अमेरिका में शुरू हुआ। आरंभिक दौर में महिलाएं स्वाध्याय समूहों (चेतना जागरण) में एकत्र हुआ करती थीं। जो कि तीसरी दुनिया के अध्ययन समूहों से बहुत कुछ मिलता-जुलता था। ये ऐसी जगहें हुआ करती थीं, जहां लोग उन मुद्दों पर विचार करने के लिए एकत्रित होते थे जो उन्हें परेशान करते थे, और संसार के व्यक्तिगत अनुभवों को समूहिक समझ में परिवर्तित करने के लिए प्रयत्न करते थे। मेरी मोनार्ड के अनुसार- “यह ऐसा विषय था जिसने धीरे-धीरे वैश्विक रूप लेना प्रारंभ कर लिया था। हालांकि इस पाठ्यक्रम की रूपरेखा बहुत हद तक किसी भी देश के सांस्कृतिक, सामाजिक या संस्थानिक प्रवृत्ति पर निर्भर करती थी।
          द्वितीय लहर का नारीवाद मुख्यतः इस बात पर केन्द्रित था कि, किस प्रकार विचार प्रक्रिया तथा ज्ञान की परंपरा ने स्त्रियों के हितों एवं उसकी अस्मिता को लगातार हाशिये पर धकेला है। इसको तोड़ने और समझने के लिए नारीवादी वैचारिकी अथवा अध्ययन को एक नए ज्ञान मीमांसा की आवश्यकता महसूस होने लगी। इसके लिए मुख्य धारा की शोध-प्रविधि या यूं कहें कि पहले से स्थापित शोध विधि के बरक्स नई शोध-प्रविधि के जरिये ज्ञान उत्पादन कि आवश्यकता पड़ी।
नारीवादी शोध की परिभाषा
          कुछ विद्वानों के अनुसार....
लिज स्टैनले के अनुसार-
           “ नारीवादी शोध स्वतंत्र रूप से और केन्द्रीय रूप से महिलाओं द्वारा किया गया एक शोध है क्योंकि मैं नारिवाद और नारीवादी चेतना के मध्य एक प्रत्यक्ष संबंध को देखती हूँ।”
कनाडियन राजनीति वैज्ञानिक नेओमी ब्लैक के अनुसार-
          “नारीवादी शोध व्यक्तिगत अनुभव और व्यक्तिनिष्ठता के मूल्य पर आग्रह करती है।”     
नारीवादी शोध की प्रकृति एवं उद्देश्य
          प्राथमिक तौर पर देखें तो, नारीवादी शोध वस्तुनिष्ठता की आलोचना करते हुए व्यक्तिनिष्ठता पर अधिक ज़ोर देती है। इसके जरिये एक नए ज्ञान पद्धति का विकास किया जाना है। अब तक का जो ज्ञान  महिलाओं के बारे में उपलब्ध है वह पुरुषवादी ज्ञान परंपरा के अंतर्गत बताया और समझाया गया है। लेकिन नारीवादी शोध पद्धति एक ऐसे भवन का निर्माण करना चाहता है जिसमें ज्ञान का वर्चस्व न रहे सबको अपने-अपने अधिकारों और भूमिकाओं का पूरा सम्मान मिल सके। नारीवादी चिंतकों का मानना है कि अभी तक के ज्ञान का जो अनुभव रहा है वह आधी आबादी का ज्ञान रहा है। यदि ऐसा न होता तो शायद एक अलग शोध पद्धति एवं नए ज्ञान मीमांसा कि आवश्यकता न होती।
          स्त्रियों की खुद की स्मिता, पहचान और महत्त्व को बनाए रखना इसके उद्देश्य का मूल है। महिला भी एक व्यक्ति/मनुष्य है, इसे प्रतिस्थापित करना भी शामिल है। और इन सबके लिए नारीवादी शोध प्रविधि परंपरागत ज्ञान की पड़ताल करती है और अपनी अंतरानुशासनिकता  के कारण सभी विषयों, मिथकों, संस्कृतियों आदि का नये तरीके से पुनर्परीक्षण कर एक नए ज्ञान की खोज ही इसका मूल उद्देश्य है।
यह पद्धति कुछ मुद्दों पर विशेष ध्यान केन्द्रित करता है-
·      यह भावनाओं एवं विचारों पर
·      डायरियों के पुनर्परीक्षण पर
·      बनी बनाई सैद्धांतिकी पर
·      मौखिक अनुभवों पर
नारीवादी शोध पद्धति
          स्त्री अध्ययन अंतरानुशासनिक विषय है। इसकी शोध प्रविधि या नारीवादी दृष्टिकोण से नए ज्ञान के निर्माण की ऐसी तकनीकी है, जो मुख्य धारा की शोध प्रविधि से अलग तरीके अपनाती है। एक तरफ जहां इसमें वस्तुनिष्ठता की जगह वैषयिकता को अधिक महत्त्व है, वहीं मात्रात्मक शोध के बरक्स गुणात्मक शोध प्रविध के प्रयोग को अधिक तरजीह दी जाती है। गुणात्मक शोध के अंतर्गत नृजातीय, जमीनी स्तर पर किए गए शोध, मौखिक इतिहास, सहभागी अवलोकन जैसे तथ्य संकलन के उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।
          इसके अंतर्गत ज्ञान की समग्रता को महत्त्व देते हुए अन्य समाज विज्ञानों में हो रहे पितृसत्तात्मक  शोध से उपजे खंडित ज्ञान की आलोचना भी की जाती है, क्योंकि ज्ञान अपनी समग्रता में ही प्रासंगिक होता है। नारीवादी शोध का यह स्वरूप अन्य समाज शास्त्रीय शोधों की खंडित ज्ञान सैद्धांतिकी की आलोचना करता है।
इस प्रकार देखें तो, नारीवादी शोध प्रविधि एक समग्र ज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहती है। साथ-ही-साथ मुख्यधारा के शोध में शोधार्थी और प्रतिभागी के बीच बनने वाले शक्ति संरचना की भी आलोचना करती है। जहां एक तरफ यह स्त्री के निजी जीवन अनुभवों को अपने केंद्र में रखता है वहीं अपने उद्देश्यों में चेतना निर्माण और सामाजिक परिवर्तन की मुहिम से भी जुड़ता है। नारीवादी शोध विभिन्न स्टैंड पॉइंट एवं प्रविधियों की बहुलता पर यकीन करता है और मानता है कि शोध में भावनात्मकता का आना कोई वर्जित वस्तु नहीं है। रसेल बनार्ड का मानना है कि इस प्रकार के शोध में एक दूसरे प्रकार की वस्तुनिष्ठता आती है, जो दूसरों के अनुभवों पर आधारित हो और यह शोधकर्ता को पक्षपाती नहीं बनाती। सीडबल्यूडीएस की डॉ॰ रेनू अद्दलखा ने अपने एक लेक्चर में Anne Oakely को संदर्भित करते हुए बताया कि दरअसल एक तटस्थ साक्षात्कार पुरुषवादी दृष्टिकोण रखता है और अंततः कोई भी सामाजिक शोध निकर्ष किसी सत-प्रतिशत सत्य का नहीं बल्कि एक आंशिक सत्य का ही प्रतिनिधितत्व करता है।
          कुल मिलकर नारीवादी शोध यह मानता है कि “Personal is not only political but it is also theoretical”. इस प्रकार शोषित और शोषक की वस्तुनिष्ठता अलग-अलग होगी और शोषित समूह के साथ भावनात्मक जुड़ाव के बिना सही मायने में ज्ञान का लोकतांत्रिकरण संभव नहीं है। 




संदर्भ
·      सिंघल, बैजनाथ.(1999).शोध: स्वरूप एवं मानक व्यवहारिक कार्यविधि: वाणी प्रकाशन; नई दिल्ली
·      श्रीवास्तव, ए॰ आर॰ एन॰ & सिन्हा, आनंद कुमार.(1999). सामाजिक अनुसंधान: के॰ के॰ पब्लिकेशन्स, इलाहाबाद
·      What makes research feminist (http://www.unb.ca/PAR-L/win/)
·      Reinharz, Sulamit.(1992). Feminist methods in social research: Oxford University Press
·      Dr. Renu addlakha Lecture (2013)

  •    Shukla, Awantika. Lecture (2013) 
 # मनोज गुप्ता
शोधार्थी पीएच. डी.
स्त्री अध्ययन, विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
ईमेल-manojkumar07gupta@gmail.com