Friday, 8 January 2016

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इन कसौटियों से लोकतांत्रिक संकल्पनाएं बाधित न हों



इन कसौटियों से लोकतांत्रिक संकल्पनाएं बाधित न हों
मनोज कुमार गुप्ता
शोधार्थी- पीएच. डी.  महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
एवं डॉक्टोरल शोध अध्येयता भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली
36, गोरख पाण्डेय छात्रावास महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) 442001
मो. नं.-9421530689
 नोट- इसी लेख का कुछ भाग जनसत्ता समाचार पत्र के संपादकीय पेज पर 8 जनवरी 2016 को प्रकाशित हुआ।

भारतीय संवैधानिक संकल्पनाओं के मूल में लोकतान्त्रिक व्यवस्था की स्थापना की प्राथमिकता निहित है। भारतीय संविधान निर्माताओं की दूरदर्शिता और देश की जनता के प्रति उनकी निष्ठा भारतीय संविधान की प्रत्येक लाइनों से प्रतिबिंबित होती है। लोकतंत्र सरकार की एक पद्धति , शासन का एक प्रकार तथा एक सामाजिक व्यवस्था के इतर भी बहुत कुछ है। लोकतांत्रिक व्यवस्था की अधिकतम सफलता के लिए अधिक से अधिक जनसहभागिता सुनिश्चित किया जाना अनिवार्य पहलू है। लेनिन लोकतंत्र को जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता का शासन कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो लोकतंत्र पूरी तरह से विकेंद्रीकरण की व्यवस्था है। जिसकी पुरजोर पैरोकारी महात्मा गांधी भी करते रहे हैं, उनका यह भी मानना था कि भारत जैसे देश के सर्वांगीण विकास का स्वप्न तभी साकार होगा जबकि, राजनीतिक एवं आर्थिक गैर बराबरी के बीच की गहरी खाई को पाटा जा सकेगा।
मताधिकार, जिसके तहत भारतीय राष्ट्र राज्य के प्रत्येक वयस्क नागरिक को बिना किसी भेदभाव के मत देने और प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार है, बजाय उम्र के आधार पर कुछ नियमों को छोड़कर। नागरिकों को प्राप्त यह अधिकार निश्चित तौर पर लोकसंप्रभुता को स्थापित करने का सशक्त माध्यम है। क्योंकि इससे जन सामान्य को अपनी विशिष्टता के अहसास के साथ-साथ देश और समाज के प्रति उनके कर्तव्यों का सहज बोध होता है जोकि स्वस्थ्य लोकतंत्र की आदर्श स्थिति कही जा सकती है। अवसरों की समान उपलब्धता किसी भी स्तर पर बाधित न हो इस बात का पूरा ध्यान हमारे संविधान में रखा गया है। देश की संसद से लेकर गाँव की संसद तक को वैधानिकता प्रदान करते हुए सभी नागरिकों की समान हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की अनवरत कोशिश की जाती रही है। हमारा संविधान आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक आदि स्तरों पर हर प्रकार की असमानता को न सिर्फ नकारता है, बल्कि उसे समाप्त करने में हर संभव प्रयास की गारंटी भी देता है। लेकिन, क्या ऐसे कुछ विशेष संवैधानिक उपचारों के जरिये एक बड़े तबके को इन अधिकारों से वंचित कर देना लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन नहीं होगा ? जबकि इन कुछ शर्तों के रूप में इजाद किए मानकों की पूर्ति न कर पाने में समाज के उस समूह का दोष न हो।
अभी हाल में ही हरियाणा सरकार द्वारा लाये गए पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम, 2015 के अनुसार पंचायत के किसी भी पद के उम्मीदवारों को आरक्षित श्रेणी के अनुसार स्कूली शिक्षा (5वीं, 8वीं, 10वी) होना अनिवार्य करने, प्रत्येक उम्मीदवार के घर में सौचालय होने जैसी तमाम शर्तें थोप दी गईं हैं। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली के मद्देनजर ऐसे बदलाओं की जमीनी तहकीकात करना नितांत आवश्यक हो जाता है। इस संवैधानिक उपचार के पश्चात राजनीति की प्राथमिकशाला में पहुंचने से पहले उम्मीदवारों को जिन मानकीकृत कसौटियों से गुजरना पड़ेगा उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि, लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का प्रवेश द्वार ही अब आबादी के उन तमाम लोगों के लिए बंद हो जाएगा जो महज सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक परिस्थितियों अथवा समाज में व्याप्त जातिगत एवं जेंडरगत जटिलताओं की जकड़नों के चलते उन कसौटियों पर खरा नहीं उतर पाये। आजादी को छः दशक से अधिक समय हो रहे हैं लेकिन आज भी विभिन्न सरकारी-गैरसरकारी कामों के लिए 40 प्रतिशत से अधिक जनता दस्तखत की जगह अपना अंगूठा आगे कर देती है, इसमें किसका दोष है? यह गंभीरता से सोंचने वाली बात है। देश में शिक्षा की जो स्थिति है यह कोई छिपी हुई बात नहीं, प्राथमिक शिक्षा की तो और भी दैनीय स्थिति है। हरियाणा की ही बात ले लें तो 2011 की जनसंख्या के आंकड़ों के अनुसार मात्र 65 प्रतिशत साक्षर महिलाएं हैं। इसमें समान्यतः उनको भी शामिल कर लिया जाता है जो महज अपना हस्ताक्षर भी कर लेती हैं। जहां तक संविधान में जनप्रतिनिधियों के न्यूनतम शैक्षिक योग्यता का सवाल है इस पर संविधान निर्माण के दौरान भी खूब चर्चा हुई थी। कुछ लोग इस पक्ष में थे पर बहुतायत  इसके पक्ष में नहीं थे। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी न्यूनतम शैक्षिक योग्यता का विरोध करते हुए इसे आलोकतांत्रिक करार दिया था। अंततः संविधान सभा ने हर व्यक्ति की उम्मीदवारी के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए संविधान को ऐसी बाधाओं से मुक्त रखा।
हरियाणा की तर्ज पर राजस्थान ने भी पंचायत स्तर पर जन प्रतिनिधितत्व के इच्छुक उम्मीदवारों की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता और सौचालय की अनिवार्यता जैसी पहल की थी। लेकिन पूर्व चुनाव आयुक्त जे एम लिंगदोह और एस वाई कुरैशी समेत कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध करते हुए कहा कि, इससे ग्रामीण आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित हो जाएगा। हरियाणा पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम, 2015 को सामाजिक कार्यकर्ता राजबाला और कौशल्या समेत प्रीत सिंह आदि ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। शीर्ष अदालत में सुनवाई के दौरान एक सवाल के जवाब में  राज्य सरकार की तरफ से अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने बताया कि इस प्रावधान के बाद 43 प्रतिशत लोग पंचायत चुनाव में अपनी उम्मीदवारी का दावा नहीं कर पाएंगे। जबकि याचिका कर्ताओं का मानना है कि,  इससे 60 प्रतिशत से अधिक लोग उम्मीदवारी से वंचित हो जाएंगे। बहरहाल आंकड़े जो भी हों पर क्या यह जनतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल है? गौरतलब है कि, न्यायालय संवैधानिक तरीकों के आधार पर निर्णय लेती है। शीर्ष अदालत ने सरकार के पक्ष में फैसला देते हुए कहा इससे संविधान का उलंघन नहीं हुआ है। जनप्रतिनिधियों का शिक्षित होना उनके कर्तव्यों के निर्वाह में सहायक होगा। सौचालय की अनिवार्यता, बैंक ऋण बिजली बिल आदि मुद्दों पर भी फैसला सरकार के पक्ष में ही रहा। आदर्श स्थिति के रूप में देखा जाय तो यह सारी बातें ठीक ही लगती हैं। लेकिन सरकार को अपनी नकामयाबी को नजरंदाज कर सारा का सारा दोष जनता के मत्थे मढ़ देना कहां तक न्यायसंगत है। सरकारों को अपनी जिम्मेदारी और जनतंत्र के प्रति जबाबदेही तय करनी होगी। सबसे मजेदार बात तो यह है कि, शिक्षा का अधिकार कानून देश आजाद होने के 50 साल बाद लागू हो पाता है जबकि उसके एक दशक के भीतर ही हम पंचायतों में शैक्षिक योग्यता की अनिवार्यता के नियम लागू करने लगते हैं। आखिर कैसे मान लिया जाय इतने दिनों में प्रत्येक नागरिक पांचवी, आठवीं कक्षा पास ही हो गया होगा। वे लोग जिन्हें औपचारिक शिक्षा का मौका नहीं मिला, पहले से ही राज्य की नाकामी से पीड़ित हैं। ऐसे में उन्हें लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित करना किसी मायने में तर्कसंगत नहीं लगता। 
 संविधान संशोधन की व्यवस्था भारतीय संविधान की जीवटता का परिचायक है पर ऐसे अपरिपक्व एवं सतही संशोधन जिससे लोकतंत्र का विस्तार न होने के बजाय संकुचन हो, पूरी तरह से अप्रासांगिक है। संसदीय प्रणाली के अन्य स्तरों पर ऐसी न्यूनतम शैक्षिक योग्यता की बाध्यता न होने के बावजूद सबसे प्राथमिक स्तर पर ही ऐसा क्यूँ ? निकट भविष्य में हरियाणा के तर्ज पर यदि अन्य राज्य भी पंचायत चुनाव में ऐसे संवैधानिक संशोधन लागू कर देंगे तो लोकतंत्र की मूल संकल्पना ही बाधित हो सकती है। हरियाणा सरकार के इस प्रावधान से सबसे अधिक गरीब, दलित, अन्य पिछड़े वर्ग के लोग और महिलाएं पंचायती राज संस्थाओं से बाहर होंगे। पंचायतों को राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत रखे जाने का दार्शनिक पहलू शायद यही रहा होगा कि, पंचायतें विकेंद्रीकरण का सशक्त माध्यम बन सकती हैं और इसके क्रियान्वयन का उत्तरदायित्व इसीलिए राज्य को सौंपा गया। पर क्या ऐसे संवैधानिक बदलाओं से यह सब संभव हो पाएगा ? यदि नहीं तो राज्य और सर्वोच्च न्यायिक व्यवस्था से आशा की जाती है कि वह प्रजातांत्रिक मूल्यों का सम्मान करते हुए अपने निर्णय पर पुनर्विचार जरूर करेगी।
संदर्भ-
·       मिश्र,कृष्णकांत.(2001).राजनीतिक सिद्धांत और शासन. ग्रंथ शिल्पी, नई दिल्ली 
·       काश्यप,सुभाष.(2013).हमारा संविधान. नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली 
·       http://tehelkahindi.com/sc-upheld-haryana-government-s-amendment-for-panchayat-polls/

·       http://www.jansatta.com/politics/nodal-agency-gram-panchayat-supreme-court-jansatta-opinion-jansatta-story/55233/