Sunday, 24 May 2015

एसिड अटैक की बढ़ती घटनाएं

भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में महिलाएं हिंसा का शिकार हो रही हैं।  महिलाओं पर हिंसा सभी वर्गों एवं समाजों में व्याप्त है। पितृसत्ता के अंतर्गत औरतों पर नियंत्रण रखने और उन्हें दबाने के लिए अनेक प्रकार की हिंसा का इस्तेमाल किया जाता है। अक्सर जीवन में ऐसे अंतर्विरोध सामने आते हैं, कि यह समझ पाना मुश्किल होता है, कि इस दुनिया को किस नजरिये से देखा जाए। ये अंतर्विरोध दो दुनियाओं के फर्क को बड़ी संजीदगी से हमारे सामने ले आते हैं और नये सिरे से सोचने पर मजबूर करते हैं, कि क्या सारी स्त्रियां पुरुष सत्ता या वर्चस्व की शिकार हैं या उनका एक खास हिस्सा ही इससे पीड़ित है? कहीं स्त्रियां पुरुष उत्पीड़न की सीधे शिकार हैं, तो कहीं वह पितृसत्तात्मक मानसिकता के अनुरूप विमर्श तैयार करती हुई पुरुषवादी एजेंडे को ही मजबूत बनाने के कार्य में लगी हैं।
      आज सहशिक्षा बढ़ने और जीवन शैली में आधुनिकता का बोलबाला होने के साथ ही हम देख सकते हैं कि, आम लड़कियों में जहां अपने जीवन और उसके निर्णयों के प्रति जागरूकता बढ़ी है, उसके ठीक समानांतर लड़कों में उनके वजूद को लेकर एक नकार की भावना पनप रही है। आज जब लड़कियाँ कैरियर, प्रेम, और शादी जैसे मसले पर स्वयं निर्णय लेने और नापसंदगी को जाहिर करने में अपनी झिझक से बहार आ रहीं हैं, जो लड़कों को नागवार गुजर रहा है और वे तेजाबी हमले जैसे कठोर और सबसे वीभत्स तरीके अपनाने लगे हैं, चाहे वह बांद्रा टर्मिनल पर प्रीती राठी पर तेजाबी हमला हो या गाजियाबाद की निशा, या फिर दिल्ली कि लक्ष्मी जिस पर तेजाब इसलिए फेंक दिया गया, क्योंकि उसने 32 वर्षीय एक पुरुष के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।  तेजाब महिलाओं के प्रति हिंसा का सबसे विकृत रूप है।
       लॉ कमीशन ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट नं. 226 के अनुसार ज्यादातर तेजाबी हमले में हैड्रोक्लोरिक एसिड और सल्फ्यूरिक एसिड का प्रयोग किया जाता है तथा मुख्यतः युवा महिलाएं ही इसका शिकार होती हैं। ऐसी घटनाएं सार्वजनिक स्थानों या घर में होती हैं, तथा इसका स्वरूप ऐसा होता है, जो कि पीड़ित व्यक्ति के चेहरे और शरीर को क्रूरतापूर्वक नष्ट कर देता है और साथ ही उनके आत्मविश्वास, जीवन शक्ति, सामाजिक सहभागिता आदि को बड़ी गहराई से प्रभावित करता है। महिलाओं पर हिंसा के ऐसे अत्यधिक उग्र प्रकार समाज में सामंती संबंधों के फैलाव और पितृसत्ता को दर्शाते हैं। तेजाबी हमले की ज्यादातर घटनाएं शहरों या उससे सटे हुये इलाकों में ही घटी हैं। भूमंडलीकरण के युग में अचानक उपभोक्तावादी और भौतिकवादी ‘उपयोग करो और फेंक दो’ संस्कृति का अविर्भाव हुआ. भारत के पड़ोसी राष्ट्रों में भी एसिड अटैक की घटनाएँ बढ़ रही हैं लेकिन “बांग्लादेश में वर्ष 2002 में ।बपक ब्वदजतवस ।बज 2002 और ।बपक ब्तपउम च्तमअमदजपवद ।बज 2002“1 के तहत एसिड की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के बाद तेजाबी हमलों का प्रतिशत एक चैथाई रह गया है।
      “राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार भारत में 2010, 2011 और 2012 में क्रमशः तेजाब पीड़ित महिलाओं की संख्या 65, 98, 101 है।”2  जो यह दर्शाती है कि किस प्रकार यह हिंसा तेजी से बढ़ रही है। बावजूद इसके सरकार और कानून व्यवस्था इसमें ज्यादा ध्यान नहीं दे रही। आये दिन तेजाबी हमले की घटनाएँ प्रकाश में आ रही हैं। इस हिंसा के विरुद्ध नए कानून बनाने और उसे प्रभावी ढंग से लागू करने कि जरूरत है। तेजाबी हमले की अधिकतर घटनाएँ शहरी क्षेत्रों में देखने को मिलती हैं, और इन घटनाओं के पीछे प्रेम एक बुनियादी कारण होता है, पर इसके और भी कारण हैं। महिलाओं के लिए लगातार भयावह होती जा रही इस दुनिया के बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है। ऐसी घटनाओं को बार-बार दोहराया क्यों जा रहा है, अपराधी बेलगाम क्यों हुये जा रहे हैं? क्या कारण है कि बलात्कार, हत्या और अब तेजाबी हमलों के देशव्यापी विरोध के बाद भी ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आ रहीं हैं।.......और विस्तार से इस लेख को पढ़ने के लिए ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं 
मनोज कुमार गुप्ता 
शोधार्थी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
ईमेल- manojkumar07gupta@gmail.com

Tuesday, 19 May 2015

सुनियोजित यौन हिंसा है : कौमार्य परीक्षण



इंडोनेशिया में सेना भर्ती के दौरान महिलाओं के कौमार्य परीक्षण की घटना ने फिर से एक सवाल खड़ा कर दिया है कि, क्या महिलाओं की पहचान आज भी उनकी यौन सुचिता के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह गयी है ? अथवा यह एक सोंची समझी रणनीति है जिसका उदेश्य महिलाओं को पुरुषों से कमतर दिखाने की कवायद है । भारत भी इससे अछूता नहीं है पिछले दिनों मध्य प्रदेश में सरकारी प्रयास से हो रहे एक समूहिक विवाह समारोह में भी कौमार्य परीक्षण की घटना ने तूल पकड़ा था । भारत में किसी महिला के साथ हुए बलात्कार की पुष्टि के लिए टी. एफ. टी. (टू फिंगर टेस्ट) परीक्षण किया जाता रहा है, जो इसी श्रेणी में आता है । हालांकि वर्ष 2013 में आई जस्टिस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट ने इस टेस्ट की कड़ी आलोचना करते हुए इसे प्रतिबंधित करने की सिफ़ारिश की थी। किसी भी महिला को सार्वजनिक रूप से ऐसे छ्द्म परीक्षणों द्वारा आरोपित करना बेहद अमानवीय कृत्य है । यद्यपि विशेषज्ञों के अनुसार यह परीक्षण नितांत अवैज्ञानिक और निराधार है । डॉक्टर्स का भी मानना है कि, हाइमन यथावत नहीं होने के अलग-अलग कारण हो सकते हैं जैसे खेलने, साइकिलिंग करने या अधिक शारीरिक श्रम से भी हाइमन प्रभावित हो सकता है उनका यह भी मानना है कि, कुछ लड़कियों में जन्म से ही हाइमन अनुपस्थिति होता है । ऐसे में इन परीक्षणों का जारी रहना महिलाओं के प्रति समाज की पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी सोंच की पुष्टि करता है ।

        कौमार्य परीक्षण महिलाओं के मानवाधिकारों के हनन से संबंधित मुद्दा है इससे उनके शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है । ह्यूमन राइट वॉच का मानना है कि, हाइमन टेस्ट महिलाओं के लिए अपमान जनक और हानिकारक है साथ ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने भी इस परीक्षण की भर्त्सना करते हुए इसे तत्काल बंद करने की मांग भी उठाई है । विश्व स्वस्थ्य संगठन ने इसे यौन हिंसा के रूप देखते हुए संगठन द्वारा जारी हैंडबुक में इस बात की पुष्टि की है कि, कौमार्य परीक्षण पूरी तरह से निरर्थक और घिनौना कृत्य है । संगठन द्वारा वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य कर्मियों एवं प्राधिकारियों से इस पक्षपाती और अपमानजनक परीक्षण को पूर्णतः समाप्त करने की अपील भी की गयी है । संयुक्त राष्ट्र संगठन, अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संघ, विश्व महिला सम्मेलन जैसे बहुत सारे संगठन लगातार महिलाओं की निजता, प्रतिष्ठा एवं स्वायत्तता के लिए लगातार प्रयासरत हैं । पिछले लगभग दो दशकों से वैश्विक स्तर पर महिला आंदोलनों और महिला अधिकारों से संबधित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का केंद्रीय प्रयास महिलाओं के विरुद्द हो रही हिंसा को समाप्त करना ही है। बावजूद इसके हमारा समाज पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी जकड़न से बाहर नहीं आ पाया है। आज भी महिलाओं की शक्ति और विशिष्टता के मानकों का निर्धारण उनकी यौन सुचिता के आधार पर किया जाना इसका जीता-जागता उदाहरण है । यह महज एक परीक्षण मात्र नहीं बल्कि सुनियोजित तरीके से महिलाओं को पुरुषों से कमतर सिद्ध करने तथा जेंडर आधारित वर्चस्व बनाए रखने की राजनैतिक साजिश है । यह नितांत विचारणीय मुद्दा है कि आखिर कब तक ऐसी रूढ़िवादी शक्तियां मानवता और मानवीय मूल्यों को आघात पहुंचाती रहेंगी । 
मनोज कुमार गुप्ता 'पथिक'
मो. 7387914970

Monday, 18 May 2015

ग्रामीण महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए सकारात्मक कदम: जेंडर मुख्यधारीकरण





सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विकास की प्रक्रिया में महिलाओं की सक्रिय सहभागिता सुनिश्चित होने से ही महिला सशक्तीकरण के लक्ष्यों की पूर्ति संभव हो सकती है। विश्व की आबादी का लगभग एक चैथाई ग्रामीण महिलाएं एवं बालिकाएं हैं। ग्रामीण और कृषि क्षेत्र के सेवा कार्यों में योगदान अधिक होने के बावजूद महिलाएं आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक सूचकांक के निम्नतम स्तर पर हैं। आय, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और निर्णय प्रक्रिया में उनकी सहभागिता काफी कम है। वैसे देखा जाय तो व्यवसाय, सरकारी सेवाओं, निजी एवं सार्वजनिक जीवन, राजनीति तथा अन्य क्षेत्रों में महिलाएं पहले से अधिक सक्रिय भूमिका में आ रही हैं। लेकिन आज भी ग्रामीण इलाकों में स्थिति बिल्कुल विपरीत नजर आ रही हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने भी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर आयोजित एक समारोह में महिलाओं की बराबर की भागीदारी पर जोर देते हुए कहा था कि, ग्रामीण महिलाओं और युवतियों की पीड़ा समाज की महिलाओं और लड़कियों को प्रतिबिम्बित करती है। अगर संसाधनों पर समान अधिकार हो और वे भेदभाव और शोषण से मुक्त हों तो ग्रामीण महिलाओं की क्षमता पूरे समाज की भलाई के स्तर में सुधार ला सकती है। भारतीय संदर्भ में देखा जाय तो यह बात ग्रामीण क्षेत्रों के संबंध में और अधिक महत्वपूर्ण बन जाती है। क्योंकि वर्तमान में भारत की कुल आबादी में 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी गांवों की है।
किसी भी राष्ट्र या समाज का विकास तब तक संभव नहीं होगा, जब तक समाज के प्रत्येक तबके का विकास प्रक्रिया में समान योगदान नहीं होगा। इस प्रक्रिया में महिलाओं का योगदान और भी महत्त्वपूर्ण है जो आधी आबादी का प्रतिनिधितत्व करती हैं। इसके लिए महिला सशक्तीकरण अर्थात महिलाओं को वे सारे उपकरण और अवसर उपलब्ध कराना जिससे वे विकास प्रक्रिया में सहभागी बन सकें। वैश्विक स्तर पर इसकी शुरुआत नैरोबी में हुए तीसरे विश्व महिला सम्मेलन में जेंडर मुख्यधारिकरण के विचार के साथ हो चुकी थी। अर्थात विकास की सभी नीतियों, अनुसंधान योजना निर्माण, समर्थन, सलाह व विकासात्मक कार्यक्रमों और उसके संचालन तक में लैंगिक दृष्टिकोण का उपयोग। वर्ष 1995 में चैथे विश्व महिला सम्मेलन बीजिंग में घोषित प्लेटफार्म ऑफ एक्शन ने इस परिकल्पना को और विस्तार दिया। भारत भी इसका साक्षी रहा। भारत में भी आठवीं पंचवर्षीय योजना से जेंडर दृष्टिकोण अपनाया जाने लगा और लगातार इस दिशा में अग्रसर है। पंचवर्षीय योजनाओं में ऐसे कार्यक्रमों और नीतियों का निर्माण किया जाता है जो महिला सशक्तीकरण की दिशा में अधिक से अधिक कारगर हो सके। महिलाओं के सर्वांगीण विकास और सशक्तीकरण के लिए विभिन्न नीतियों और योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन के माध्यम से उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास किए जा रहे है। जेंडर बजटिंग, मानरेगा, पंचायतों में महिला नेतृत्त्व को बढ़ावा देना आदि इसी क्रम में शामिल हैं । एक तरफ सहस्राब्दी विकास लक्ष्य वर्ष 2015 निर्धारित किया गया था जिसे भारत ने भी स्वीकारा था, पूरा होने जा रहा है।  ऐसे में ग्रामीण महिलाओं के सशक्तीकरण एवं विकास में जेंडर मुख्यधारीकरण प्रक्रिया द्वारा हो रही क्रमिक प्रगति के साथ ही निकट भविष्य में आने वाली चुनौतियों एवं संभावनाओं पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
(यह लेख दिल्ली से प्रकाशित हिंदी दैनिक वुमेन एक्सप्रेस में 22 अप्रैल 2015 को प्रकाशित हो चुका है।) लिंक http://womenexpress.in/images/epaper/22_4_15.pdf
मनोज कुमार गुप्ता 'पथिक'
लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पीएच. डी. (स्त्री अध्ययन) शोधार्थी एवं
भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के डॉक्टोरल फेलो हैं।  
ईमेल पता- manojkumar07gupta@gmail.com

मो. 7387914970

Saturday, 16 May 2015

प्यारी भतीजी.........#महक

चंचल और नटखट प्यारी महक ने धमाल मचा रखा है घर में चाचू-चाचू करती आगे पीछे घूमती रहती है इसके साथ खेलेने में कितने आनंद की अनुभूति होती है यह शब्दों में कहना मुश्किल है ........वास्तव में बेहद सुखद अनुभूति


Friday, 15 May 2015

भारत में बढ़ता साइबर अपराध Cyber crime



n  मनोज कुमार गुप्ता 'पथिक'
 शोधार्थी पीएच.डी. एवं ICSSR Institutional Doctoral Research Fellow
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महराष्ट्र)
ई-मेल आईडी- manojkumar07gupta@gmail.com
प्रतियोगिता दर्पण जनवरी 2015 अंक में प्रकाशित
साइबर व्योम (cyber space)-
            साइबर स्पेस शब्द का प्रयोग सबसे पहले विलियम गिब्सन ने वर्ष 1984 में अपनी पुस्तक न्यू रोमांसर में किया था। यह एक ऐसी आभासी दुनिया है, जहां बहुत सारी ऐसी गतिविधियां है जो आप देख नहीं सकते और यदि कुछ आप देख भी सकते है पर उसे छू नहीं सकते। लेकिन इस आभासी दुनिया ने वास्तविक जगत को जबरदस्त ढंग से प्रभावित किया है। इसमें अकूत क्षमताएं हैं, अपार संभावनाएं हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इंटरनेट और कंप्यूटर के बिना रहा ही नहीं जा सकता।
            लगभग 90 के दसक के मध्य का दौर दुनिया भर में तेजी से बढ़ते भूमंडलीकरण और कंप्यूटरीकरण का दौर रहा है। हर क्षेत्र में इसका विस्तार बहुत तेजी से हो रहा है चाहे वह व्यापार, शासन प्रणाली, शिक्षा, स्वास्थ्य या अन्य कोई भी क्षेत्र हो साइबर स्पेस के दायरे में आ चुका है। इलेक्ट्रानिक संचार और सॉफ्ट कॉपी जैसे माध्यमों का प्रयोग बढ़ा है। संचार, नेटवर्किंग, सक्रियता और मनोरंजन जैसी कई नयी संभावनाएं इंटरनेट के जरिये बहुत ही आसान तथा संभव हुई हैं।  इंटरनेट और कंप्यूटर के माध्यम से विकास की गति तो तेज हुई है परंतु पिछले दसकों इस आभासी दुनिया में अपराध भी बढ़े हैं। जो बहुत ही व्यापक और विध्वंसकारी सिद्ध हो रहे हैं। इसे आमतौर पर साइबर क्राइम अथवा साइबर अपराध के नाम से जाना जाता है।
साइबर अपराध-
            लोग अपराध क्यों करते हैं या इसकी तरफ क्यों आकृष्ट होते हैं इसकी अनेक संभव व्याख्याओं में पारस्परिक मतभेद हो सकता है। जिसकी मीमांसा अपराधशास्त्रियों द्वारा विभिन्न रूपों में की जाती है। परंतु इस बात से नकारा नहीं जा सकता कि समाज में अपराध का ग्राफ तेजी से बढ़ने के साथ नित नए और व्यापक रूप सामने आ रहे हैं। इनसे निजात पाना दुष्कर होता जा रहा है। साइबर क्राइम अपराधों की नयी तस्वीर है जिसे वैश्विक स्तर पर बहुत ही भयानकता के रूप में देखा जा रहा है। इसे कंप्यूटर क्राइम के रूप में भी जाना जाता है। इसे कुछ इस प्रकार परिभाषित किया गया है-
            “संगणक अपराध या साइबर अपराध का संदर्भ उस अपराध से है जिसमें एक संगणक और एक संजालक की संलिप्तता होती है। भले ही अपराध होने में संगणकों की कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका रही हो या नहीं” अथवा “ संगणक के इस्तेमाल से की गयी गैर कानूनी गतिविधि, जिसमें संगणक से संबंधित फिरौती, धोखाधड़ी और जालसाजी तथा आंकड़ों तक अप्राधिकृत प्रवेशिता तथा आंकणों के साथ छेड़-छाड़ शामिल है।”              
            इक्कीसवीं सदी में साइबर क्राइम विश्वव्यापी समस्या के रूप में उभरा है। हालांकि इसका पहला मामला वर्ष 1820 ई. में फ्रांस में सामने आया था। ज्ञातव्य है कि 90 के दसक के मध्य से विकसित और विकासशील सभी देशों में भूमंडलीकरण के साथ-साथ कंप्यूटरीकरण का विस्तार हुआ है। नयी जीवन पद्धति में हमारी निर्भरता कंप्यूटर और इंटरनेट पर बढ़ी है। वर्तमान में भारत इंटरनेट प्रयोग के मामले में एशियाई देशों में 11वें स्थान पर है। साइबर क्राइम सूचना एवं तकनीकी का प्रयोग करने वाले बहुत बड़े परिक्षेत्र को प्रभावित करता है।           
साइबर क्राइम के प्रकार
            अभी तक 166 प्रकार के कंप्यूटर क्राइम हैं जिन्हें साइबर क्राइम की श्रेणी में रखा जा सकता है। लेकिन साधारणतयः इसे तीन रूपों में देखा जा सकता है। पहला किसी व्यक्ति या समुदाय के खिलाफ दूसरा धन या संपत्ति के हेर-फेर और तीसरा सरकार या सरकारी संस्था के विरुद्ध, इसे साइबर आतंकवाद के रूप में भी जाना जाता है। व्यापक रूप में देखा जाय तो इंटरनेट के माध्यम से किए गए अपराध जिसमें क्रेडिट कार्ड धोखाधड़ी, पहचान की चोरी, शिशु पोर्नोग्राफी, सोशल नेटवर्किंग के माध्यम से अभद्रता, अनैतिक संगणक भंजन (हैकिंग), निजता का हनन आदि को साइबर अपराध के रूप में देखा जाता है।
साइबर शिकार (cyber stalking)
            इंटरनेट के माध्यम से अक्सर बहुत आसानी से अवांछित ई-मेल, ई-डाक को लोगों तक पहुंचाया जाता है। इन अवांछित तत्त्वों के माध्यम से एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को उद्वेलित करने वाले संदेश भेजकर परेशान करने की कोशिश करता है जैसे किसी बड़े धन में हिस्सेदारी की आशा दिलाकर आपके गोपनीय दस्तावेजों को साझा करने हेतु आपको प्रलोभन देता है। कभी-कभी इस कार्य के लिए विभिन्न साइबर माध्यमों से आपको भयाक्रांत भी करता है। ऐसी गतिविधियों को साइबर शिकार कहते हैं। अवांछित ए-डाक को प्रायः स्पैम कहते हैं और इस गतिविधि को स्पैमिंग कहते हैं। साइबर अपराधी इस कार्य के लिए चैट रूम, वेबसाइट आदि माध्यमों का उपयोग करते हैं।  
साइबर निंदा( cyber defamation)
            जब कोई व्यक्ति कंप्यूटर या इंटरनेट के माध्यम से किसी अन्य के बारे में गलत जानकारी या अपमान जनक टिप्पड़ी अथवा अश्लील तथ्यों का प्रसार करता है तो इसे साइबर निंदा के रूप में जाना जाता है। आमतौर से यह स्त्री पुरुष दोनों के साथ होता है, परंतु विभिन्न रिपोर्टों के मुताबिक भारत में साइबर निंदा का शिकार अधिकतर महिलाएं होती हैं।
 साइबर अश्लीलता (cyber pornography)
            वर्तमान में साइबर पोर्नोग्राफी एक विकट समस्या है जिससे सबसे अधिक महिलाए और युवा पीढ़ी प्रभावित हो रही है। इंटेरनेशनल सेक्योरिटी सिस्टम लैब के सुरक्षा विशेषज्ञ डॉ. गिल्बर्ट वोंडरैसेक ने शोधकर्ताओं की टीम के साथ किए गए शोध में पाया कि मौजूदा बेबसाइटों में तकरीबन 12% ऐसी हैं जो किसी न किसी रूप में पोर्नोग्राफी दिखाते हैं। और 24 वर्ष से कम उम्र के 70% लोग इन साइटों को देखते हैं। यह तथ्य भी सामने आया कि 3.23% ऐसी भी बेबसाइटें हैं, जो यूजर्स के बारे में गोपनीय जानकारी इकट्ठा करने वाले तथा वाइरस पैदा करने वाले सॉफ्टवेयर लगाए हैं। इसके लिए युवा महिलाओं और लड़कियों को आसानी से शिकार बनाया जा रहा है। अधिकतर दर्ज मामलों में 16 से 35 उम्र की महिलाएं होती हैं। Dr. L. Prakash V Superindent  इस मामले में एक अर्थोपैडिक डा॰ ने एक महिला को जबरन सेक्सुअल क्रियाकलाप करने के लिए बाध्य किया और उसका वीडियो क्लिप बनाकर उसे प्रौढ़ मनोरंजन सामग्री के रूप में बेंच दिया। इससे अपराधी पीड़ित को बार-बार आतंकित करता रहा। ऐसे मामले भी आते हैं जब प्रेम संबंधों में अपने पार्टनर का अश्लील फोटो या वीडिओ लेकर अलगाव की स्थिति में उसका दुरुपयोग किया जाता है। उसे इंटरनेट पर डालने या मार्केट में बेंचने की धमकी आदि शामिल होती है। चाइल्ड पोर्नोग्राफी का भी चलन सामने आ रहा है इसमें बच्चों को आसानी से शिकार बनाया जा रहा है। ऐसे अधिकतर मामलों में नजदीकी दोस्त, सगे संबंधी, या ऑफिस के लोग शामिल होते हैं।                                                                                                                                                           
मोर्फिंग- अनधिकृत प्रयोगकर्ता या नकली पहचान वाले लोगों द्वारा किसी मौलिक चित्र को बदलकर या संशोधित कर संपादित करना मोर्फिंग के रूप में जाना जाता है।
ई-मेल धोखाधड़ी-  
            ई-मेल, चैट और मैसेज के माध्यम से भी साइबर अपराधी अकेले या समूह के साथ मिलकर धमकी भरे संदेश या फिरौती अथवा लॉटरी आदि के नाम पर लोगों के गोपनीय दस्तावेजों तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। साइबर लॉ टाइम्स डॉट कॉम के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि भारत में साइबर क्राइम का खतरा महिलाओं और बच्चों पर अधिक है। अधिकतर मामले में ऐसी शिकायत दर्ज कराई जाती है जब किसी महिला के ई-मेल पर अश्लील चित्र आदि कई बार भेजा जाता है। पीड़ित के चेहरे को कंप्यूटर के माध्यम से किसी नग्न तस्वीर के साथ जोड़कर संपादित किया जाता है और उसके मेल खाते में भेज दिया जाता है। ई-मेल धोखाधड़ी की में ऐसे कई तरीके शामिल किए जा सकते हैं।
साइबर आतंकवाद-
            साइबर आतंकवाद से आशय ऐसे किसी कृत्य से है जो किसी कंप्यूटर संसाधन और इंटरनेट के माध्यम देश की संप्रभुता, देशवासियों के जीवन और संपत्ति और विदेशों से संबंध को नुकसान पहुंचता है। अथवा आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने में कंप्यूटर या इंटरनेट का इस्तेमाल करना या किसी राष्ट्र अथवा बड़ी कंपनियों अथवा सुरक्षा व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ को हैक कर चुराना आदि साइबर आतंकवाद की श्रेणी में आता है। बड़े पैमाने पर वाइरस हमले भी इसी कोटि का अपराध है। यह साइवर क्राइम का सबसे विद्रूप चेहरा है। सूचना प्रौद्योगिकी संशोधन अधिनियम, 2008 में साइबर आतंकवाद को परिभाषित किया गया है। अधिनियम के अंतर्गत परिभाषित है कि, अपराधी विदेशी नागरिक भी हो सकता है और अंतर्राष्ट्रीय चिंतन कि प्रवृत्ति मृत्युदंड के सख्त खिलाफ है। इसमें संलिप्त अपराधी को अधिकतम आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है।
 इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
            लाल किले पर आक्रमण (वर्ष2000) को अंजाम देने के लिए नॉलेज प्लस नामक कंप्यूटर केंद्र का इस्तेमाल किया गया था। वर्ष 2001 में संसद पर हुये हमले में भी कंप्यूटर और अन्य एलेक्ट्रोनिक यंत्रों का प्रयोग किया गया था। शीर्ष न्यायालय के संसद आक्रमण वाद से निःसंदेह यह सिद्ध होता है कि, इस घटना में सेल फोन, जेनेसा वेबसिटी और साइबरटेक कंप्यूटर हार्डवेयर सोल्यूशन नमक दो साइबर गृहों, एक लैपटॉप सहित अन्य वस्तुओं का इस्तेमाल किया गया था। इन साइबर गृहों का संचालन काल्पनिक नामों वाले फर्जी पहचानपत्रों के आधार पर घटना को अंजाम देने के लिए किया जा रहा था। 
कानूनी प्रावधान
सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (2000), इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य एलेक्ट्रानिक वाणिज्य को वैधानिकता दिलवाना था। साथ ही इसने भारतीय दंड संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनिय 1872, बैंकर्स अधिनियम 1891 और भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 में संशोधन की आवश्यकता को  जन्म दिया। इसका प्रभाव क्षेत्र सम्पूर्ण भारत और कुछ स्थितियों में भारत की सीमा के बाहर भी है। भारतीय परिदृश्य में तेजी से बढ़ते साइबर अपराध को देखते हुए सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (2000) में संशोधन करना आवश्यक हो गया। और यह सूचना प्रौद्योगिकी संशोधन अधिनियम (2008) के रूप में आया जो 27 अक्टूबर 2009 से लागू हो गया। इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण बाते शामिल की गईं  जिससे सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम अधिक  व्यापक और सशक्त हुआ। संशोधन के पश्चात इसने उन लोगों पर नकेल कसना शुरू कर दिया है जो साइबर जगत में अश्लील कृतियों एवं कृत्यों के साथ संलिप्तता रखते हैं।
            सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम(2000) का अनुभाग 66र(एफ) साइबर आतंकवाद को परिभाषित करता है। इसी प्रकार पहचान की चोरी (अनुभाग 66स); निजता का उलंघन (अनुभाग 66य); इलेक्ट्रानित रूप में अभद्र सामाग्री का प्रकाशन आदि (अनुभाग 67), यौनिक रूप से स्पष्ट कृत्यों आदि को अंतर्विष्ट करने वाली सामाग्री का एलेक्ट्रानिक प्रकाशन (अनुभाग 67क) तथा बच्चों यौनिक रूप से स्पष्ट कृत्यों आदि को अंतर्विष्ट करने वाली सामाग्री का एलेक्ट्रानिक प्रकाशन (अनुभाग 67ख) हेतु दंड का प्रावधान किया गया है। भारत से बाहर कारित अपराधों पर  अधिनियम (अनुभाग 75) लागू होगा।
वर्तमान स्थिति-
            कतिपय कानूनी प्रावधानों के बावजूद भारत में साइबर अपराध तेजी से बढ़ रहा है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की वर्ष 2013 की रिपोर्ट पर दृष्टि डालें (वर्ष 2012-2013) में साइबर अपराध में 50%  वृद्धि हुई। जो चिंतनीय विषय है। साइबर अपराध को अंजाम देने वालों में अधिकतर ऐसे अपराधी शामिल हैं जिनकी उम्र 18-30 वर्ष के बीच है। दर्ज सिकायतों में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश तथा उत्तर प्रदेश क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। वर्ष 2013 में दिल्ली में 131 साइबर अपराध के मामलों में शिकायत दर्ज कराई गई  जो 2012 के मुक़ाबले 70% से अधिक है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस तेजी से भारत में साइबर अपराध का खतरा बढ़ रहा है।
            साइबर विशेषज्ञ पवन दुग्गल ने बीबीसी हिंदी को दिये गए अपने एक साक्षात्कार में बताया कि यदि हम सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम(2000) पर नजर डालें तो पता चलेगा कि यह कानून इन बेबसाइटों पर कानूनी ज़िम्मेदारी डालते हुये कहता है कि वे अपनी सही सोंच का इस्तेमाल करें। ऐसी स्थिति में अक्सर हर बेबसाइट यह कहकर निकल जाती है कि हम भारत के बाहर के हैं, हम आपके कानून के अंतर्गत बाध्य नहीं हैं। चीन के कानून में स्पष्ट कहा गया है कि यदि आपको चीन में आना है तो स्थानीय कानून का अनुसरण करना होगा। साइबर या ऑनलाइन हमलों से सुरक्षा को लेकर आई “मैकेफ़ी साइबर डिफेंस रिपोर्ट” के अनुसार भारत साइबर सुरक्षा चौकसी के मामले में निचले पायदान पर है।
निकर्ष-
            उपयुक्त अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वास्तव में 21वीं सदी में साइबर अपराध एक नयी और विकट समस्या के रूप में तेजी से उभर रहा है। साइबर अपराध को एक बंद कमरे से भी अंजाम दिया जा सकता है। दुनिया के किसी भी कोने में बैठकर साइबर अपराधी बड़ी-बड़ी घटनाओं को अंजाम देते हैं। ये सफेदपोश अपराधी विधिक प्रावधानों से बचते हुये और समाज में आदर और सम्मान से रहते हुये आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त रहते हैं। इन्हें पहचानना इतना आसान नहीं होता। साइबर अपराध की स्पष्ट व्याख्या और सख्त कानून के अभाव में भारतीय दंड संहिता तथा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम को संयुक्त रूप से अपराधियों को सजा देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। साइबर अपराध को नियंत्रित करने के लिए और भी शक्त कानून की जरूरत है।      

संदर्भ सूची-
·       Shah, Aaushi; Ravi, Shrinidhi. A to Z of cyber crime. Asian school of cyber law
·       Jaishankar, k.. Cyber criminology.(2011). CRC press, New York
·       Comprehensive study on cyber crime draft feb-2013, UNODC Vienna
·       Understanding cyber crime: Phenomena, challenges and legal response.(2012). International telecommunication union
·       https://www.kpmg.com/Global/en/IssuesAndInsights/ArticlesPublications/Documents/cyber-crime.pdf  (27/09/14)
·       http://www.gcl.in/downloads/bm_cybercrime.pdf (27/09/14) 
·       http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2012/01/120130_cyber_attack_ms, (31/01/2012, 05:06 IST )
·       Crime survey report 2013 staistics, NCRB
·       http://www.cyberlawtimes.com/cyber-crime-statistics-india-2013-2014/
·       http://www.indiancybersecurity.com/index.html
·       http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2010/06/100613_pornsite_risk_dps, (13 june 2010)

·       डॉ. मिश्र, जय प्रकाश. (2014). साइबर विधि एक परिचय. सेंट्रल लॉ पब्लिकेशन्स इलाहाबाद  

फसाना............





अजनवी था वो शहर
हर सख्स अजनवी था
सिलसिला वो नया था
माहौल अजनवी था
दिन के भी उजाले में
खो जाने का जो डर था
हर सख्स अजनवी था
हर वक्त कोई डर था
कुछ लोग भले थे पर
ना जाने क्यों उन पर शक था
बीता हुआ जो कल था
यादों का एक पल था
अजनवी था वो शहर
हर सख्स अजनवी था
                           ---मनोज कुमार गुप्ता 'पथिक'

Thursday, 14 May 2015

पानी रे पानी

तपती धूप और गर्मी में पानी की तलाश में विचरते पक्षियों को पानी की व्यवस्था मुहैया कराने का दोस्तों के साथ एक प्रयास.........








भारतीय नारीवादी चिंतक थे : डॉ. अंबेडकर



यह लेख नीचे लिखे लिंक पर जाकर बेब दुनिया पोर्टल पर भी पढ़ा जा सकता है 
http://hindi.webdunia.com/current-affairs/dr-ambedkar-115042200022_1.html

भारतीय संदर्भ में जब भी समाज में व्याप्त जाति, वर्ग एवं जेंडर के स्तर पर व्याप्त असमानताओं और उनमें सुधार संबंधी मुद्दों पर चिंतन हो रहा हो तो डॉ. भीमराव आंबेडकर के विचारों एवं दृष्टिकोणों को शामिल किए बिना बात पूरी नहीं हो सकती। अंबेडकर ने समाज के अस्पृश्य, उपेक्षित तथा सदियों से सामाजिक शोषण से संत्रस्त दलित वर्ग को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने का अभूतपूर्व कार्य ही नहीं किया बल्कि उनका पूरा जीवन समाज में व्याप्त रूढ़ियों और अंधविश्वास पर आधारित संकीर्णताओं और विकृतियों को दूर करने पर भी केंद्रित रहा।
 
भारत में एक ऐसे वर्गविहीन समाज की संरचना चाहते थे जिसमें जातिवाद, वर्गवाद, संप्रदायवाद तथा ऊंच-नीच का भेद न हो और प्रत्येक मनुष्य अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए स्वाभिमान और सम्मानपूर्ण जीवन जी सके। उनके चिंतन का केंद्र महिलाएं भी थीं क्योंकि भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति बहुत ही चिंतनीय थी। पुरुष वर्चस्व की निरंतरता को कायम रखने के लिए महिलाओं का धार्मिक और सांस्कृतिक आडंबरों के आधार पर शोषण किया जा रहा था।
 
हालांकि 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में समाज सुधार आंदोलन हुए जिनका मुख्य उद्देश्य महिलाओं से जुड़ी तमाम सामाजिक कुरीतियों को दूर करना था जैसे- बाल विवाह को रोकना, विधवा पुनर्विवाह, देवदासी प्रथा आदि मुद्दे प्रमुखता से शामिल थे। अन्य समाज सुधारक जहां महिला शिक्षा को परिवार की उन्नति व आदर्श मातृत्व को संभालने अथवा उसके स्त्रियोचित गुणों के कारण ही उसकी महत्ता पर बल देते थे परंतु स्त्री भी मनुष्य है उसके भी अन्य मनुष्यों के समान अधिकार हैं। इसे स्वीकार करने में हिचकिचाते थे। लेकिन अंबेडकर स्त्री-पुरुष समानता के समर्थक थे वे महिलाओं को किसी भी रूप में पुरुषों से कमतर नहीं मानते थे।
 
बंबई की महिला सभा को संबोधित करते हुए डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था “नारी राष्ट्र की निर्मात्री है, हर नागरिक उसकी गोद में पलकर बढ़ता है,नारी को जागृत किए बिना राष्ट्र का विकास संभव नहीं है।” 
 
डॉ. अंबेडकर महिलाओं को संवैधानिक अधिकार दिलाने के पक्षधर थे। जिससे महिलाओं को भी सामाजिक, शैक्षिक एवं राजनीतिक स्तर पर समानता का अधिकार मिल सके। इस शोध पत्र में डॉ. अंबेडकर के उन विभिन्न पहलुओं को शामिल किया गया है जिससे यह स्पष्ट होता है कि वे महिलाओं कि स्थिति के लिए प्रयासरत एवं चिंतनशील थे। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक प्रतीत होते हैं।
 
भारतीय नारीवादी चिंतन और अंबेडकर के महिला चिंतन की वैचारिकी का केंद्र ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था और समाज में व्याप्त परंपरागत धार्मिक एवं सांस्कृतिक मान्यताएं ही थीं। जो महिलाओं को पुरुषों के आधीन बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती रही हैं। वर्ष 1916 में अंबेडकर ने मानवविज्ञानी अलेक्जेंडर गोल्डेंविसर द्वारा कोलम्बिया विश्वविद्यालय, यूएसए में आयोजित सेमिनार में “कास्ट इन इंडिया : देयर मैकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट” शीर्षक से पत्र पढ़ा जो जाति और जेंडर के बीच अंतरसंबंधों की समझ पर आधारित था।
 
भारतीय संदर्भ में देखा जाय तो अंबेडकर संभवतः पहले अध्येता रहे हैं, जिन्होंने जातीय संरचना में महिलाओं की स्थिति को जेंडर की दृष्टि से समझने की कोशिश की। यह वह समय था जब, यूरोप के कई देशों में प्रथम लहर का महिला आंदोलन अपनी गति पकड़ चुका था जो मुख्य रूप से महिला मताधिकार के मुद्दे पर केंद्रित था। 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलनों में महिलाएं भी खुलकर भाग लेने लगीं थीं। राष्ट्रीय मुद्दों के साथ ही महिलाओं से संबंधित मुद्दे भी इसी दौरान उठाए जाने लगे थे और साथ ही महिलाओं ने अपने स्वायत्त संगठन भी बनाने शुरू कर दिए थे।  
मनोज कुमार गुप्ता 'पथिक'

इक्कीसवीं सदी और अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मायने


अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की कल्पना की शुरुआत 20वीं सदी के प्रथम चरण से ही हो चुकी थी। यह ऐसा दौर था जब औद्योगिक जगत में एक व्यापक उथल-पुथल हो रहा था और साथ ही कई क्रांतिकारी विचार भी आने लगे थे। महिलाएं भी अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने एवं अपने दमन और उत्पीड़न के खिलाफ एक जुट होकर बड़े बदलाव की तरफ उन्मुख हो रही थीं। वर्ष 1910  में कोपनहेगन में संपन्न हुए श्रमिक महिलाओं के द्वितीय विश्व सम्मेलन में पहली बार जर्मनी की महिला नेत्री एवं चिंतक क्लारा जेटिकन ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का प्रस्ताव रखा और 1911 में इस पर सहमति बन गयी। यह मुख्य रूप से महिलाओं के काम के अधिकार, वोट देने के अधिकार तथा उनकी सार्वजनिक जीवन में सक्रिय सहभागिता आदि मुद्दों पर केंद्रित था । वर्ष 1975 में अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष की घोषण के साथ संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस बात की भी घोषणा की गयी कि प्रत्येक वर्ष 8 मार्च के दिन को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाएगा ।

            21वीं सदी निःसंकोच इस बात की गवाह है कि महिलाओं की स्थिति और उनके बारे में सामाजिक नजरिए में बदलाव आया है। भारत सहित वैश्विक पटल पर महिलाएं अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई संगठन महिलाओं के आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक सशक्तिकरण के लिए प्रयासरत हैं। महिलाओं के लिए प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन जो 1995 में बीजिंज में तैयार किया था। इसे चौथा विश्व महिला सम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन जब हम दूसरे पहलू की तरफ दृष्टि डालते हैं तो हम इस बात पर सोंचने को मजबूर हो जाते हैं कि क्या वास्तव में महिलाओं के प्रति समाज के लोगों का सकारात्मक दृष्टिकोण है ? यदि ऐसा है तो क्यों महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा का ग्राफ दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है ? लिंगानुपात में गिरावट दर्ज की जा रही है । महिला दिवस की सार्थकता सही मायने तभी पूर्ण हो सकती है , जब विश्व भर में महिलाओं को आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक स्वायत्तता प्राप्त हो पाएगी । एक जेंडर संवेदनशील समाज की स्थापना हो । इसी दिशा में हमें अग्रसर होना है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2015 की विषय वस्तु मेक इट हैपेन रखा गया है। अर्थात हम यह कह सकते हैं कि अब महिला अधिकारों और उनके प्रति दुराग्रहों को दूर कर नए अवसरों तक उनकी पहुंच को संभव बनाना ही है।  वर्ष 2015 में बीजिंग+20 का आयोजन होना रहा है। जिसमें महिलाओं के विरुद्ध हिंसा, कन्या शिशु, महिला शिक्षा, निर्णय की भूमिका आदि विषयों को चर्चा के केंद्र में रखा जाना है। यह ऐसे मुद्दे हैं जो समकालीन परिस्थितियों में समीचीन हैं।


मनोज कुमार गुप्ता 'पथिक'
शोधार्थी- पीएच. डी (स्त्री अध्ययन)
म. गां.. अं. हिं. वि. वि., वर्धा
ICSSR Doctoral fellow