इंडोनेशिया में सेना भर्ती के दौरान महिलाओं के कौमार्य परीक्षण की घटना ने
फिर से एक सवाल खड़ा कर दिया है कि, क्या महिलाओं की पहचान आज भी उनकी यौन सुचिता के इर्द-गिर्द ही सिमट कर
रह गयी है ? अथवा यह एक सोंची समझी रणनीति है जिसका उदेश्य
महिलाओं को पुरुषों से कमतर दिखाने की कवायद है । भारत भी इससे अछूता नहीं है
पिछले दिनों मध्य प्रदेश में सरकारी प्रयास से हो रहे एक समूहिक विवाह समारोह में
भी कौमार्य परीक्षण की घटना ने तूल पकड़ा था । भारत में किसी महिला के साथ हुए
बलात्कार की पुष्टि के लिए टी. एफ. टी. (टू फिंगर टेस्ट) परीक्षण किया जाता रहा है, जो इसी श्रेणी में आता है । हालांकि वर्ष 2013 में आई जस्टिस वर्मा कमेटी
की रिपोर्ट ने इस टेस्ट की कड़ी आलोचना करते हुए इसे प्रतिबंधित करने की सिफ़ारिश की
थी। किसी भी महिला को सार्वजनिक रूप से ऐसे छ्द्म परीक्षणों द्वारा आरोपित करना बेहद
अमानवीय कृत्य है । यद्यपि विशेषज्ञों के अनुसार यह परीक्षण नितांत अवैज्ञानिक और
निराधार है । डॉक्टर्स का भी मानना है कि, हाइमन यथावत नहीं
होने के अलग-अलग कारण हो सकते हैं जैसे खेलने, साइकिलिंग
करने या अधिक शारीरिक श्रम से भी हाइमन प्रभावित हो सकता है उनका यह भी मानना है
कि, कुछ लड़कियों में जन्म से ही हाइमन अनुपस्थिति होता है ।
ऐसे में इन परीक्षणों का जारी रहना महिलाओं के प्रति समाज की पितृसत्तात्मक
रूढ़िवादी सोंच की पुष्टि करता है ।
कौमार्य परीक्षण महिलाओं के
मानवाधिकारों के हनन से संबंधित मुद्दा है इससे उनके शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थ्य
पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है । ह्यूमन राइट वॉच का मानना है कि, हाइमन टेस्ट महिलाओं के लिए अपमान जनक और
हानिकारक है साथ ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने भी इस परीक्षण की भर्त्सना करते
हुए इसे तत्काल बंद करने की मांग भी उठाई है । विश्व स्वस्थ्य संगठन ने इसे यौन
हिंसा के रूप देखते हुए संगठन द्वारा जारी हैंडबुक में इस बात की पुष्टि की है कि, कौमार्य परीक्षण पूरी तरह से निरर्थक और घिनौना कृत्य है । संगठन द्वारा
वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य कर्मियों एवं प्राधिकारियों से इस पक्षपाती और अपमानजनक
परीक्षण को पूर्णतः समाप्त करने की अपील भी की गयी है । संयुक्त राष्ट्र संगठन, अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संघ, विश्व महिला
सम्मेलन जैसे बहुत सारे संगठन लगातार महिलाओं की निजता,
प्रतिष्ठा एवं स्वायत्तता के लिए लगातार प्रयासरत हैं । पिछले लगभग दो दशकों से
वैश्विक स्तर पर महिला आंदोलनों और महिला अधिकारों से संबधित राष्ट्रीय एवं
अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का केंद्रीय प्रयास महिलाओं के विरुद्द हो रही हिंसा को
समाप्त करना ही है। बावजूद इसके हमारा समाज पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी जकड़न से बाहर
नहीं आ पाया है। आज भी महिलाओं की शक्ति और विशिष्टता के मानकों का निर्धारण उनकी
यौन सुचिता के आधार पर किया जाना इसका जीता-जागता उदाहरण है । यह महज एक परीक्षण
मात्र नहीं बल्कि सुनियोजित तरीके से महिलाओं को पुरुषों से कमतर सिद्ध करने तथा जेंडर
आधारित वर्चस्व बनाए रखने की राजनैतिक साजिश है । यह नितांत विचारणीय मुद्दा है कि
आखिर कब तक ऐसी रूढ़िवादी शक्तियां मानवता और मानवीय मूल्यों को आघात पहुंचाती
रहेंगी ।
मनोज कुमार गुप्ता 'पथिक'
मो. 7387914970
No comments:
Post a Comment